कोसीर। कोसीर मुख्यालय और आसपास के गांव में तीजा त्यौहार को लेकर उत्साह रहा वही कोसीर में भी तीजा त्यौहार को लेकर खासा उत्साह दिखा कोसीर लक्ष्मी नारायण मंदिर में सुहागिनों ने शिव पार्वती की कथा सुनकर अपनी व्रत तोड़े । पूजा कार्यक्रम में कांग्रेस ब्लाक अध्यक्ष श्रीमती सुनीता चन्द्रा भी शामिल हुई और उनके समाज की सुहागिनें उपस्थित रहे ।
हरतालिका तीज एक पावन त्यौहार है ।
इस दिन सुहागिन महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए निर्जला व्रत रखती हैं और फिर अगले दिन पूजा के बाद इस व्रत का पारण किया जाता है। वैसे तो साल में चार तीज आती हैं लेकिन उन सभी में हरतालिका तीज का सबसे अधिक महत्व माना जाता है। इस व्रत को कुंवारी लड़कियों द्वारा भी अच्छे वर की प्राप्ति के लिए रखा जाता है।
उत्तर भारत के कई राज्यों में इस दिन मेहंदी लगाने और झूला झूलने की भी प्रथा है। इस त्यौहार की रौनक विशेष तौर पर उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल और बिहार में देखने को मिलती है। इस व्रत को निर्जला रखा जाता है और अगले दिन पूजन के पश्चात ही व्रत खोला जाता है।
तीजा भादो मास के शुक्ल पक्ष में तृतीया को मनाया जाता है। इसे सामान्यतः हरतालिका व्रत भी कहा जाता है। हरतालिका विवाहित महिलाओं द्वारा अखंड सौभाग्य की कामना से रखा जाता है। कहीं-कहीं कुंवारी लड़कियाँ भी सुयोग्य वर की कामना से उपवास करती हैं। पुराणों में यह बात उल्लेखित है कि पार्वती ने वर के रूप में शिव को प्राप्त करने के लिए इस दिन घोर तपस्या की थी। इसी की स्मृति में महिलाओं द्वारा हरतालिका व्रत व उपवास रखा जाता है। यह एक सामान्य सी जानकारी है। किन्तु हरतालिका अर्थात् तीजा का छत्तीसगढ़ में विशिष्ट महत्व है।
तीज त्यौहार लोक जीवन में रंग भरते है और उमंग भी। तीजा के समय बेटी व बहनों को पिता या भाई द्वारा लिवा कर लाया जाता है। बेटी और बहन के लिए यह त्यौहार आनंद व उमंग लेकर आता है। ये जब मायके आती हैं तो इनकी खुशियों का कोई ठिकाना नहीं रहता। पुरानी सखी सहेलियों से भेंट, माँ, बाप, भाई -बहन का बिछड़ा हुआ साथ, बड़े-बूढों का सानिध्य और आशीर्वाद जैसे सब कुछ जीवन में लौटकर आ जाता है।
वही नदी-नाले, घाट-घटौंदे, बाग-बगीचे, खेत-खार, घर-द्वार जो विवाह के पूर्व सब बचपन के साथी थे। इन सबसे मिलकर जैसे सपनों को पंख लग जाते हैं। ससुराल की बंदिशों से कुछ समय के लिए मुक्ति मिलती है। ये बहन, बेटियाँ मायके आकर चिड़ियों की तरह फुदकती हैं और झरनों की तरह गाती हैं। लाज और संकोच छूट जाते हैं, स्नेह-प्यार व मया-दुलार पाकर जैसे क्लांत चेहरा फूल की तरह खिल-खिल जाता है। ये सारी खुशियाँ मिलती हैं तीजा में मायके आने पर। तब बेटी क्यों न जोहे बाट अपने बाप की, बहन क्यों न ताके राह अपने भाई की।
उन बहन-बेटियों का आनंद द्विगुणित हो जाता है। जिन्हें तीजा से आठ-दस दिन पहले ही लिवा कर ले जाया जाता है। किन्तु मायके पक्ष व ससुराल पक्ष में कार्य की अधिकता या व्यस्तता के कारण ‘पोरा‘ के बाद मायके जाने वाली बहन-बेटियों का धीरज लेनहार भाई की प्रतीक्षा में जवाब दे जाता है। फिर भी उसे आशा है कि उसका भाई पोला त्यौहार की रोटी (व्यंजन) लेकर उसे लेने आएगा। इसलिए प्रतीक्षातुर बहन के कंठ से यह लोक गीत झरता है- नव व्याहता बेटी के लिए तो यह और भी परीक्षा की घड़ी होती है।